नोट - यहाँ प्रकाशित साधनाओं, स्तोत्रात्मक उपासनाओं को नियमित रूप से करने से यदि किसी सज्जन को कोई विशेष लाभ हुआ हो तो कृपया हमें सूचित करने का कष्ट करें।

⭐विशेष⭐


23 अप्रैल - श्रीहनुमान जयन्ती
10 मई - श्री परशुराम अवतार जयन्ती
10 मई - अक्षय तृतीया,
⭐10 मई -श्री मातंगी महाविद्या जयन्ती
12 मई - श्री रामानुज जयन्ती , श्री सूरदास जयन्ती, श्री आदि शंकराचार्य जयन्ती
15 मई - श्री बगलामुखी महाविद्या जयन्ती
16 मई - भगवती सीता जी की जयन्ती | श्री जानकी नवमी | श्री सीता नवमी
21 मई-श्री नृसिंह अवतार जयन्ती, श्री नृसिंहचतुर्दशी व्रत,
श्री छिन्नमस्ता महाविद्या जयन्ती, श्री शरभ अवतार जयंती। भगवत्प्रेरणा से यह blog 2013 में इसी दिन वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को बना था।
23 मई - श्री कूर्म अवतार जयन्ती
24 मई -देवर्षि नारद जी की जयन्ती

आज - कालयुक्त नामक विक्रमी संवत्सर(२०८१), सूर्य उत्तरायण, वसन्त ऋतु, चैत्र मास, शुक्ल पक्ष।
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महाशिवरात्रि का अद्भुत रहस्य [श्रीशिवपञ्चाक्षर स्तोत्रम्]

गवान शिव के नाम का अर्थ ही 'कल्याण' है। दयालु धूर्जटी शिवजी की कृपा पाने को हर कोई लालायित रहता है। सभी शिवभक्तों को ज्ञात है कि महादेव शिवशङ्कर जी की उपासना हेतु सोमवार उत्तम दिवस है। फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी अर्थात् महाशिवरात्रि के दिन तो औघड़दानी शम्भू श्रीमहादेव का विशेष आराधन किया जाता है।महाशिवरात्रि का पर्व परत्मात्मा शिव के दिव्य अवतरण का मङ्गलसूचक है। उनके निराकार से साकार रूप में अवतरण की रात्रि ही महाशिवरात्रि कहलाती है। कृपानिधान शंकर भगवान हमें काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सरादि विकारों से मुक्त करके परम सुख शान्ति, ऐश्वर्यादि प्रदान करते हैं।
यक्षस्वरूपाय जटाधराय पिनाकहस्ताय सनातनाय। दिव्याय देवाय दिगम्बराय तस्मै 'य' काराय नम: शिवाय॥५॥ जिन्होंने यक्ष रूप धारण किया है, जो जटाधारी हैं, जिनके हाथ में पिनाक है, जो दिव्य सनातन पुरुष हैं, उन दिगम्बर देव 'य' कारस्वरूप शिव को नमस्कार है।
     महाशिवरात्रि को रात्रि में चार प्रहर की पूजा का विधान है। इसमें शिवजी को पञ्चामृत से स्नान कराकर चन्दन, पुष्प, अक्षत, भस्म, वस्त्रादि से श्रृङ्गार कर आरती करनी चाहिये। महाशिवरात्रि को रात्रिभर जागरण तथा पंचाक्षर-मन्त्र(नमः शिवाय) का जप करना चाहिये। शिवजी की विविध स्तुतियों, स्तोत्रादि का पाठ, रुद्राभिषेक, रुद्राष्टाध्यायी तथा रुद्रीपाठ करने का भी विधान है।
     महाशिवरात्रि के संबन्ध में ईशानसंहिता में जो आख्यान वर्णित है वह यहां प्रस्तुत है-

     पद्मकल्प के प्रारम्भ में भगवान् ब्रह्मा जब अण्डज, पिण्डज, स्वेदज, उद्भिज्ज एवं देवताओं आदि की सृष्टि कर चुके, एक दिन स्वेच्छा से घूमते हुए क्षीरसागर पहुँचे। उन्होंने देखा भगवान् नारायण शुभ्र, श्वेत सहस्त्रफणमौलि शेष की शय्या पर शान्त लेटे हुए हैं। भूदेवी, श्रीदेवी, श्रीमहालक्ष्मी शेषशायी के चरणों को अपने अङ्क में लिये चरण-सेवा कर रही हैं। गरुड़, नन्द, सुनन्द, पार्षद, गन्धर्व, किन्नर आदि विनम्रता से हाथ जोड़े खड़े हैं। यह देख ब्रह्माजी को अति आश्चर्य हुआ। शिव-माया से ब्रह्माजी में गर्व उत्पन्न हो गया था कि मैं एकमात्र सृष्टि का मूल कर्ता हूँ और मैं ही सबका स्वामी, नियन्ता तथा पितामह हूँ। फिर यह वैभवमण्डित कौन यहां निश्चिन्त सोया है?
     श्रीनारायण को अविचल शयन करते हुए देखकर उन्हें क्रोध आ गया। ब्रह्माजी ने समीप जाकर कहा- "तुम कौन हो? उठो! देखो, मैं तुम्हारा स्वामी, पिता आया हूँ। शेषशायी ने केवल दृष्टि उठायी और मन्द मुसकान से बोले- वत्स! तुम्हारा मङ्गल हो। आओ इस आसन पर बैठो।" ब्रह्माजी को और अधिक क्रोध हो आया, झल्लाकर बोले- "मैं तुम्हारा रक्षक, जगत् का पितामह हूँ। तुमको मेरा सम्मान करना चाहिये। इस पर भगवान नारायण ने कहा- जगत् मुझ में स्थित है, फिर तुम उसे अपना क्यों कहते हो? तुम मेरे नाभि-कमल से पैदा हुए हो, अत: मेरे पुत्र हो।" 'मैं स्रष्टा, मैं स्वामी' - यह विवाद दोनों में होने लगा। श्रीब्रह्माजी ने 'पाशुपत' और श्रीविष्णुजी ने 'माहेश्वर' अस्त्र उठा लिया।
     समस्त दिशाएँ अस्त्रों के तेज से जलने लगीं, सृष्टि में प्रलय की आशंका उत्पन्न हो गयी थी। देवगण भागते हुए कैलास पर्वत पर भगवान् विश्वनाथ के पास पहुँचे। अन्तर्यामी भगवान् शिवजी सब समझ गये। देवताओं द्वारा स्तुति करने पर वे बोले- "मैं ब्रह्मा-विष्णु के युद्ध को जानता हूँ। मैं उसे शान्त करूँगा।"
     ऐसा कहकर भगवान् शङ्कर सहसा श्रीविष्णुजी व श्रीब्रह्माजी के मध्य में अनादि, अनन्त-ज्योतिर्मय स्तम्भ के रूप में प्रकट हुए-
'शिवलिङ्गतयोद्भूत: कोटिसूर्यसमप्रभ:।।'
माहेश्वर, पाशुपत दोनों अस्त्र शान्त होकर उसी ज्योतिर्लिङ्ग में लीन हो गये।
     श्रीविष्णुजी व श्रीब्रह्माजी दोनों स्वयं ऊपर तथा नीचे जाकर खोजने लगे पर बहुत ढूंढने पर भी उस स्तम्भ का आरंभ कहां से हुआ है व उसका अंत कहां है यह नहीं ज्ञात कर सके तब श्रीविष्णुजी व श्रीब्रह्माजी को भूल का ज्ञान हुआ।
     श्रीविष्णुजी और श्रीब्रह्माजी ने उस लिङ्ग(स्तम्भ) की पूजा अर्चना की। तब श्रीविष्णुजी व श्रीब्रह्माजी को श्रीशिवजी ने अपने पञ्चमुखी स्वरूप के दर्शन कराए थे। यह  निष्कल ब्रह्म, निराकार ब्रह्म का प्रतीक शिवलिङ्ग फाल्गुन कृष्णा चतुर्दशी को प्रकट हुआ था तभी से आज तक शिवलिङ्ग की पूजा निरन्तर चली आ रही है। सदाशिव श्रीविष्णुजी और श्रीब्रह्माजी ने कहा- "महाराज! जब हम दोनों शिवलिङ्ग के आदि तथा अन्त का पता न लगा सके तो आगे मानव इसकी पूजा कैसे करेगा?" इस पर कृपालु भगवान शिव द्वादश-ज्योतिर्लिंगों में विभक्त हो गये। महाशिवरात्रि का यही रहस्य है।
यह महाशिवरात्रि व्रत 'व्रतराज' के नाम से सुविख्यात है। यह शिवरात्रि यमराज के शासन का भय मिटाने वाली है और शिवलोक को देने वाली  है। शास्त्रोक्त विधि से जो इसका जागरण सहित उपवास करेंगे, उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होगी। इस महाशिवरात्रि व्रत के करने मात्र से सब पापों का क्षय हो जाता है।
     महाशिवरात्रि की महिमा को बतलाने वाला, शिवपुराण में वर्णित एक आख्यान यहाँ प्रस्तुत है-

     वाराणसी के वन में एक भील रहता था। उसका नाम गुरुद्रुह था। उसका कुटुम्ब बड़ा था। वह बलवान् और क्रूर था। अत: प्रतिदिन वन में जाकर मृगों को मारता और वहीं रहकर नाना प्रकार की चोरियाँ करता था। शुभकारक महाशिवरात्रि के दिन उस भील के माता-पिता, पत्नी और बच्चों ने भूख से पीड़ित होकर भोजन की याचना की। वह तुरंत धनुष लेकर मृगों के शिकार के लिये सारे वन में घूमने लगा।
     संयोगवश उस भील को उस दिन कुछ भी शिकार नहीं मिला और सूर्य अस्त हो गया। वह सोचने लगा- अब मैं क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? माता-पिता, पत्नी, बच्चों की क्या दशा होगी? कुछ लेकर ही घर जाना चाहिये, यही सोचकर वह व्याध(शिकारी) एक जलाशय के समीप पहुँचा कि रात्रि में कोई-न-कोई जीव यहाँ पानी पीने अवश्य आयेगा- उसी को मारकर घर ले जाऊँगा।
     वह व्याध किनारे पर स्थित बिल्वबृक्ष पर चढ़ गया। पीने के लिये कमर में बँधी तूम्बी में जल भरकर बैठ गया। भूख-प्यास से व्याकुल वह शिकार की चिंता में बैठा रहा। रात्रि के प्रथम प्रहर में एक प्यासी हरिणी वहाँ आयी। उसको देखकर व्याध को अति हर्ष हुआ, तुरंत ही उसका वध करने के लिये उसने अपने धनुष पर एक बाण का संधान किया। ऐसा करते हुए उसके हाथ के धक्के से थोड़ा-सा जल और कुछ बिल्वपत्र टूटकर नीचे गिर पड़े। उस वृक्ष के नीचे शिवलिङ्ग विराजमान थावह जल और बिल्वपत्र शिवलिङ्ग पर गिर पड़ा। उस जल और बिल्वपत्र से प्रथम प्रहर की शिवपूजा सम्पन्न हो गयी।
     खड़खड़ाहट की ध्वनि से हरिणी ने भय से ऊपर की ओर देखा। जंगल में रहते-रहते वह भील जंतुओं की भाषा भी समझने लगा था। व्याध को देखते ही मृत्यु के भय से व्याकुल हो वह मृगी बोली- "व्याध! तुम क्या चाहते हो, सच-सच बताओ।" व्याध ने कहा- "मेरे कुटुम्ब के लोग भूखे हैं, अत: तुमको मारकर उनकी भूख मिटाऊँगा।" मृगी बोली- "भील! मेरे मांस से तुमको, तुम्हारे कुटुम्ब को सुख होगा, इस अनर्थकारी शरीर के लिये इससे अधिक महान् पुण्यदायी कार्य भला और क्या हो सकता है? परंतु इस समय मेरे सब बच्चे आश्रम में मेरी बाट जोह रहे होंगे। मैं बच्चों को अपने स्वामी को सौंपकर लौट आऊँगी।" मृगी के शपथ खाने पर बड़ी मुश्किल से व्याध ने उसे छोड़ दिया
     द्वितीय प्रहर में उस हिरनी की बहन उसी की राह देखती हुई, ढूँढती हुई जल पीने वहाँ आ गयी। व्याध ने उसे देखकर बाण को तरकश से खींचा। ऐसा करते समय पुन: पहले की ही भांति शिवलिङ्ग पर जल व बिल्वपत्र गिर गये। इस प्रकार दूसरे प्रहर का पूजन सम्पन्न हो गया। मृगी ने पूछा- "व्याध! यह क्या करते हो?" व्याध ने पूर्ववत् उत्तर दिया- "मैं अपने भूखे कुटुम्ब को तृप्त करने के लिये तुझे मारूँगा।" मृगी ने कहा- "मेरे छोटे-छोटे बच्चे घर में हैं। अत: मैं उन्हें अपने स्वामी को सौंपकर तुम्हारे पास लौट आऊँगी। मैं वचन देती हूँ।" व्याध ने उसे भी छोड़ दिया। व्याध का दूसरा प्रहर भी जागते-जागते बीत गया।
     इतने में ही तृतीय प्रहर में एक बड़ा हृष्ट-पुष्ट हिरण मृगी को ढूंढ़ता हुआ आया। व्याध के बाण चढ़ाने पर पुन: कुछ जल व बिल्वपत्र शिवलिङ्ग पर गिरे। अब तीसरे प्रहर की पूजा भी सम्पन्न हो गयी। मृग ने आवाज से चौंककर व्याध की ओर देखा और पूछा- "क्या करते हो?" व्याध ने कहा- "तुम्हारा वध करूँगा", हरिण ने कहा-"मेरे बच्चे भूखे हैं। मैं बच्चों को उनकी माता को सौंपकर तथा उनको धैर्य बँधाकर शीघ्र ही यहाँ लौट आऊँगा।" व्याध बोला-"जो-जो यहाँ आये वे सब तुम्हारी ही तरह बातें तथा प्रतिज्ञा कर चले गये, परंतु अभी तक नहीं लौटे।" मृग द्वारा शपथ खाने पर उसने हिरन को भी छोड़ दिया। 
     मृग-मृगी सब अपने स्थान पर मिले। तीनों प्रतिज्ञाबद्ध थे, अत: तीनों जाने के लिये हठ करने लगे। अत: उन्होंने बच्चों को अपने पड़ोसियों को सौंप दिया और तीनों चल दिये। उन्हें जाते देख बच्चे भी भागकर पीछे-पीछे चले आये। उन सबको एक साथ आया देख व्याध को अति हर्ष हुआ। यह चतुर्थ प्रहर था। उसने तरकश से बाण खींचा जिससे पुन: जल-बिल्वपत्र शिवलिङ्ग पर गिर पड़े। इस प्रकार चौथे प्रहर की पूजा भी सम्पन्न हो गयी।
     रात्रिभर शिकार की चिन्ता में व्याध निर्जल, भोजनरहित जागरण करता रहा। शिवजी का रञ्चमात्र भी चिन्तन नहीं किया। चारों प्रहर की पूजा अनजाने में स्वत: ही हो गयी। उस दिन महाशिवरात्रि थी। जिसके प्रभाव से व्याध के सम्पूर्ण पाप तत्काल भस्म हो गये।
     इतने में ही मृग और दोनों मृगियां बोल उठे- "व्याध-शिरोमणे! शीघ्र कृपाकर हमारे शरीरों को सार्थक करो और अपने कुटुम्ब-बच्चों को तृप्त करो।" व्याध को बड़ा विस्मय हुआ। ये मृग ज्ञानहीन पशु होने पर भी धन्य हैं, परोपकारी हैं और प्रतिज्ञापालक हैं, मैं मनुष्य होकर भी जीवन भर हिंसा, हत्या और पाप कर अपने कुटुम्ब का पालन करता रहा। मैंने जीव-हत्या कर उदरपूर्ति की, अतः मेरे जीवन को धिक्कार है! धिक्कार है!! व्याध ने बाण को रोक लिया और कहा- "श्रेष्ठ मृगों! तुम सब जाओ। तुम्हारा जीवन धन्य है!"
     व्याध के ऐसा कहने पर शिवलिङ्ग से तुरंत भगवान् शङ्कर प्रकट हो गये और उसके शरीर को स्पर्श कर प्रेम से कहा-"र माँगो।" साक्षात् सदाशिव को समक्ष खड़ा देखकर भावविभोर होकर "मैंने सब कुछ पा लिया"-ऐसा कहते हुए व्याध उनके चरणों में गिर पड़ा। श्रीशिवजी ने प्रसन्न होकर उसका 'गुह' नाम रख दिया और वरदान दिया कि भगवान् श्रीराम एक दिन अवश्य ही तुम्हारे घर पधारेंगे और तुम्हारे साथ मित्रता करेंगे। तुम मोक्ष प्राप्त करोगे। वही व्याध शृंगवेरपुर में निषादराज 'गुह' बना, जिसने भगवान् राम का आतिथ्य किया।
     वे सब मृग चंद्रमौलि भगवान शंकर का दर्शन कर मृगयोनि से मुक्त हो गये। शाप मुक्त हो विमान से दिव्य धाम को चले गये। तब से अर्बुद पर्वत पर भगवान् शिव व्याधेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हुए। दर्शन-पूजन करने पर वे तत्काल मोक्ष प्रदान करते हैं। यह महाशिवरात्रि व्रत 'व्रतराज' के नाम से सुविख्यात है। यह शिवरात्रि यमराज के शासन का भय मिटाने वाली है और शिवलोक को देने वाली  है। शास्त्रोक्त विधि से जो इसका जागरण सहित उपवास करेंगे, उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होगी। इस महाशिवरात्रि व्रत के करने मात्र से सब पापों का क्षय हो जाता है।
श्रीविष्णुजी और श्रीब्रह्माजी ने उस लिङ्ग(स्तम्भ) की पूजा अर्चना की। तब श्रीविष्णुजी व श्रीब्रह्माजी को श्रीशिवजी ने अपने पञ्चमुखी रूप के दर्शन कराए थे। यह  निष्कल ब्रह्म, निराकार ब्रह्म का प्रतीक शिवलिङ्ग फाल्गुन कृष्णा चतुर्दशी को प्रकट हुआ था तभी से आज तक शिवलिङ्ग की पूजा निरन्तर चली आ रही है।
   ज्योतिषशास्त्र के अनुसार प्रतिपदा आदि सोलह तिथियों के अग्नि आदि देवता स्वामी होते हैं, अत: जिस तिथि का जो देवता स्वामी होता है, उस देवता का उस तिथि में व्रत-पूजन करने से उस देवता की विशेष कृपा उपासक को प्राप्त होती है। चतुर्दशी तिथि के स्वामी शिव हैं, शिवकी तिथि चतुर्दशी है। अत: इस तिथि की रात्रि में व्रत करने के कारण इस व्रत का नाम 'शिवरात्रि' होना उचित ही है।
     इसीलिये प्रत्येक मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तिथि में शिवरात्रिव्रत होता है, जो मासिक शिवरात्रिव्रत कहलाता है। शिवभक्त प्रत्येक कृष्ण चतुर्दशी का व्रत करते हैं परंतु फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को अर्धरात्रि में 'शिवलिङ्गतयोद्भूतः कोटिसूर्यसमप्रभ' - ईशानसंहिता के इस वचन के अनुसार ज्योतिर्लिङ्ग का प्रादुर्भाव होने से यह पर्व महाशिवरात्रि के नाम से विख्यात हुआ। इस व्रत को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, स्त्री-पुरुष और बाल-युवा-वृद्ध आदि सभी कर सकते हैं। जिस प्रकार श्रीराम, श्रीकृष्ण, वामन और नृसिंहजयन्ती तथा प्रत्येक एकादशी का व्रत हरेक को करना चाहिये, उसी प्रकार महाशिवरात्रि व्रत भी सभी को करना चाहिये। मान्यता है कि इस व्रत के न करने से दोष लगता है।

     शिवपुराण की कोटिरुद्रसंहिता में इस महाशिवरात्रि व्रत का महत्त्व बताते हुए कहा गया है कि शिवरात्रिव्रत करने से व्यक्ति को भोग एवं मोक्ष दोनों ही प्राप्त होते हैं। ब्रह्माजी, विष्णुजी तथा पार्वतीजी के पूछने पर भगवान सदाशिव ने बताया कि शिवरात्रि व्रत करने से महान् पुण्य की प्राप्ति होती है। मोक्षार्थी को मोक्ष की प्राप्ति कराने वाले चार व्रतों का नियमपूर्वक पालन करना चाहिये। ये चार व्रत हैं- १-भगवान शिव की पूजा, २-रुद्र मन्त्रों का जप, ३-उपवास करके शिवमन्दिर जाना तथा ४-काशी में देहत्याग। शिवपुराण में मोक्ष के चार सनातन मार्ग बताये गये हैं। इन चारों में भी शिवरात्रि व्रत का विशेष महत्त्व है। अत: इसे अवश्य करना चाहिये! यह सभी के लिये धर्म का उत्तम साधन है। निष्काम अथवा सकामभाव से सभी मनुष्यों, वर्णों, आश्रमों, स्त्रियों, बालकों तथा देवताओं आदि के लिये यह महान् व्रत परम हितकारक माना गया है। प्रत्येक मास के शिवरात्रि व्रतों में भी फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी में होने वाले महाशिवरात्रि व्रत का शिवपुराण तथा अन्य हिन्दू धर्मग्रन्थों में विशेष माहात्म्य बताया गया है।

     यह प्रश्न कौंध सकता है कि रात्रि ही क्योंअन्य देवताओँ का पूजन, व्रत आदि जबकि प्रायः दिन में ही होता है तब भगवान शङ्कर को रात्रि ही क्यों प्रिय हुई और वह भी फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी तिथि ही क्यों? इस जिज्ञासा का समाधान विद्वानों ने बताया है कि हालांकि परमेश्वर को किसी भी गुण में बांधा नहीं जा सकता पर फिर भी भगवान शिव शंकर संहारशक्ति और तमोगुण के अधिष्ठाता हैं, अत: तमोमयी रात्रि से उनका स्नेह (लगाव) होना स्वाभाविक ही है। रात्रि में शांत व एकान्त होने से मन को भगवान में आसानी से एकाग्र किया जा सकता है। रात्रि संहारकाल की प्रतिनिधि है, उसका आगमन होते ही सर्वप्रथम प्रकाश का संहार, जीवों की दैनिक कर्मचेष्टाओं का संहार और अन्त में निद्रा द्वारा चेतनता का ही संहार होकर सम्पूर्ण विश्व संहारिणी रात्रि की गोद में अचेतन होकर गिर जाता है। ऐसी दशा में प्राकृतिक दृष्टि से शिव का रात्रिप्रिय होना सहज ही हदयङ्गम हो जाता है। यही कारण है कि, भगवान शङ्कर की आराधना न केवल इस रात्रि में ही वरन् सदैव प्रदोषकाल(रात्रि के प्रारम्भ होने) के समय में की जाती है।

     शिवरात्रि का कृष्ण पक्ष में होना भी साभिप्राय ही है। शुक्लपक्ष में चन्द्रमा पूर्ण(सबल) होता है और कृष्णपक्ष में क्षीण। उसकी वृद्धि के साथ-साथ संसार के सम्पूर्ण रसवान् पदार्थों में वृद्धि और क्षय के साथ-साथ उनमें क्षीणता होना स्वाभाविक एवं प्रत्यक्ष है। क्रमश: घटते-घटते वह चन्द्रमा अमावास्या को बिलकुल क्षीण हो जाता है। चराचर जगत् के यावन्मात्र मन के अधिष्ठाता उस चन्द्र के क्षीण हो जाने से उसका प्रभाव अण्डपिण्डवाद के अनुसार सम्पूर्ण भूमण्डल के प्राणियों पर भी पड़ता है और उन प्राणियों के अन्तःकरण में तामसी शक्तियाँ प्रबुद्ध होकर अनेक प्रकार के नैतिक एवं समाजिक अपराधों का कारण बनती हैं। इन्हीं शक्तियों का अपर नाम आध्यात्मिक भाषा में भूत-प्रेतादि है और शिव को इनका नियामक(नियन्त्रक) माना जाता है। दिन में, यद्यपि जगदात्मा सूर्य की स्थिति से आत्मतत्त्व की जागरूकता के कारण ये तामसी शक्तियाँ अपना विशेष प्रभाव नहीं दिखा पाती हैं, किंतु चन्द्रविहीन अंधकारमयी रात्रि के आत्मतत्व की जागरूकता के साथ ही वे अपना प्रभाव दिखाने लगती हैं। इसलिये जैसे पानी पीने से पहले ही पुल बाँधा जाता है, उसी प्रकार इस चन्द्रक्षय(अमावास्या)तिथि के आने से सद्यः पूर्व ही उन सम्पूर्ण तामसी वृत्तियों के उपशमनार्थ इन वृत्तियों के एकमात्र अधिष्ठाता भगवान आशुतोष की आराधना करने का विधान शास्त्रकारों ने किया है। विशेषतया कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि में शिवाराधना का रहस्य है।
शिव अर्धनारीश्वर होकर भी कामविजेता हैं, गृहस्थ होते हुए भी परम विरक्त हैं, हलाहल पान करने के कारण नीलकण्ठ होकर भी विष से अलिप्त हैं, ऋद्धि-सिद्धियों के स्वामी होकर भी उनसे विलग हैं, उग्र होते हुए भी सौम्य हैं, अकिंचन होते हुए भी सर्वेश्वर हैं, भयंकर विषधरनाग और सौम्य चन्द्रमा दोनों ही उनके आभूषण हैं, मस्तक में प्रलयकालीन अग्नि और सिर पर परम शीतल गङ्गा की धारा उनका अनुपम शृङ्गार है।
     फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी में रहस्य निहित है। जहाँ तक प्रत्येक मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी के शिवरात्रि कहलाने की बात है वे सभी शिवरात्रि ही कहलाती हैं और पञ्चाङ्गों में उन्हें इसी नाम से लिखा जाता है, परंतु फाल्गुन की शिवरात्रि महाशिवरात्रि के नाम से पुकारी जाती है। जिस प्रकार अमावास्या के दुष्प्रभाव से बचने के लिये उससे ठीक एक दिन पूर्व चतुर्दशी को यह शिवोपासना की जाती है, उसी प्रकार क्षय होते हुए वर्ष के अन्तिम मास चैत्र से ठीक एक मास पूर्व फाल्गुन में ही इस व्रतोत्सव का विधान शास्त्रों में मिलता है। जो कि युक्तिसंगत ही है। साथ ही रुद्रों के एकादश संख्यात्मक होने के कारण भी इस पर्व का ११वें मास(फाल्गुन) में सम्पन्न होना इस व्रतोत्सव के रहस्य पर प्रकाश डालता है।

     उपवास-रात्रिजागरण क्यों किया जाता है? आइये इसे समझने का प्रयास करते हैं। ऋषि-महर्षियों ने समस्त आध्यात्मिक अनुष्ठानो में उपवास को महत्त्वपूर्ण माना है। गीता(२।५९) की इस उक्ति 'विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिन:' के अनुसार उपवास विषय-निवृत्ति का अचूक साधन है। अत: आध्यात्मिक साधना के लिये उपवास करना परमावश्यक है। उपवास के साथ रात्रिजागरण के महत्त्व पर गीता(२।६९) का यह कथन अत्यन्त प्रसिद्ध है- 'या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।' इसका सीधा तात्पर्य यही है कि उपवासादि के द्वारा इन्द्रियों और मन पर नियन्त्रण करने वाला संयमी व्यक्ति ही रात्रि में जागकर अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये प्रयत्नशील हो सकता है। अत: शिवोपासना के लिये उपवास एवं रात्रिजागरण करने के अतिरिक्त और कौन सा साधन उपयुक्त हो सकता है? रात्रिप्रिय शिव से भेंट करने का समय रात्रि के अलावा और कौन सा समय हो सकता है? इन सब कारणों से ही इस महान् व्रत में व्रतीजन उपवास के साथ-साथ रात्रि में जागकर शिवपूजा करते हैं।

     जो रात्रि जागरण व चारों प्रहर के पूजन में अशक्त हों उनको पहले प्रहर की पूजा तो अवश्य ही करनी चाहिये संभव हो तो अर्धरात्रि में शिवाराधना करके ही उनको शयन करना चाहिये और अगले दिन प्रातःकाल पुनः स्नानकर भगवान् शङ्कर की पूजा करने के पश्चात् व्रत की पारणा करनी चाहिये। रात्रि जागरण करने वाले भक्तगण शिवमंत्रों को जपकर, शिव पञ्चाक्षर स्तोत्र, शिव सहस्रनाम स्तोत्र, शिव कवच, शिवाष्टोत्तरशत नाम स्तोत्र जैसे उत्तम स्तोत्रों का निरंतर पाठ करके, स्तोत्रों का अर्थानुसंधान करते हुए शिवचिंतन करके, शिवमय होकर रात्रि जागरण को सफल कर सकते हैं। शिवजी के जिस स्तोत्र में पंचाक्षर मंत्र के प्रत्येक अक्षर की महिमा बतलाई गई है, वह शिवपंचाक्षर स्तोत्र यहाँ सानुवाद प्रस्तुत है-

श्रीशिवपञ्चाक्षर स्तोत्रम्


नागेन्द्रहाराय त्रिलोचनाय 
भस्माङ्गरागाय महेश्वराय।
नित्याय शुद्धाय दिगम्बराय
तस्मै 'न' काराय नम: शिवाय॥१॥
जिनके  कण्ठ में साँपों का हार है, जिनके तीन नेत्र हैं, भस्म ही जिनका अङ्गराग(अनुलेपन) है; दिशाएँ ही जिनका वस्त्र हैं, उन शुद्ध अविनाशी महेश्वर 'न' कारस्वरूप शिव को नमस्कार है।

मन्दाकिनीसलिल-चन्दनचर्चिताय
नन्दीश्वर-प्रमथनाथमहेश्वराय।
मन्दारपुष्प-बहुपुष्पसुपूजिताय
तस्मै 'म' काराय नम: शिवाय॥२॥
गङ्गाजल और चन्दन से जिनकी अर्चा हुई है, मन्दार पुष्प तथा अन्यान्य कुसुमों से जिनकी सुन्दर पूजा हुई है, उन नन्दी के अधिपति प्रमथगणों के स्वामी महेश्वर के 'म' कारस्वरूप को नमस्कार है।

शिवाय गौरीवदनाब्जवृन्द-
सूर्याय दक्षाध्वरनाशकाय।
श्रीनीलकण्ठाय वृषध्वजाय
तस्मै 'शि' काराय नम: शिवाय॥३॥
जो कल्याणस्वरूप हैं, पार्वतीजी के मुखकमल को विकसित(प्रसन्न) करने के लिये जो सूर्यस्वरूप हैं, जो दक्ष के यज्ञ का नाश करने वाले हैं, जिनकी ध्वजा में बैल का चिह्न है, उन शोभाशाली नीलकण्ठ 'शि' कारस्वरूप शिव को नमस्कार है।

वसिष्ठकुम्भोद्भव-गौतमार्य-
मुनीन्द्रदेवार्चित-शेखराय।
चन्द्रार्क-वैश्वानरलोचनाय
तस्मै 'व' काराय नम: शिवाय॥४॥
वसिष्ठ, अगस्त्य और गौतम आदि श्रेष्ठ मुनियों ने तथा इन्द्र आदि देवताओं ने जिनके मस्तककी पूजा की है, चन्द्रमा, सूर्य और अग्नि जिनके नेत्र हैं, उन 'व' कारस्वरूप शिव को नमस्कार है।

यक्षस्वरूपाय जटाधराय
पिनाकहस्ताय सनातनाय।
दिव्याय देवाय दिगम्बराय
तस्मै 'य' काराय नम: शिवाय॥५॥
जिन्होंने यक्ष रूप धारण किया है, जो जटाधारी हैं, जिनके हाथ में पिनाक है, जो दिव्य सनातन पुरुष हैं, उन दिगम्बर देव 'य' कारस्वरूप शिव को नमस्कार है।

पञ्चाक्षरमिदं पुण्यं य: पठेच्छिवसंनिधौ।
शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते॥६॥
जो शिव के समीप इस पवित्र पञ्चाक्षर का पाठ करता है, वह शिवलोक को प्राप्त करता और वहाँ शिवजी के साथ आनन्दित होता है।
श्रीमच्छङ्कराचार्यविरचितं शिवपञ्चाक्षर स्तोत्रं ॐ तत्सत्
जिस प्रकार अमावास्या के दुष्प्रभाव से बचने के लिये उससे ठीक एक दिन पूर्व चतुर्दशी को यह शिवोपासना की जाती है, उसी प्रकार क्षय होते हुए वर्ष के अन्तिम मास चैत्र से ठीक एक मास पूर्व फाल्गुन में ही इस व्रतोत्सव का विधान शास्त्रों में मिलता है। जो कि युक्तिसंगत ही है।
     महाशिवरात्रि पर्व में उत्तम संदेश छिपा हुआ है। शशांकभूषण भगवान शङ्कर में अनुपम सामञ्जस्य, अद्भुत समन्वय और उत्कृष्ट सद्भाव के दर्शन होने से हमें उनसे शिक्षा ग्रहण कर विश्वकल्याण के महान् कार्य में प्रवृत्त होना चाहिये - यही इस परम पावन पर्व का मानवजाति के प्रति दिव्य संदेहै। शिव अर्धनारीश्वर होकर भी कामविजेता हैं, गृहस्थ होते हुए भी परम विरक्त हैं, हलाहल पान करने के कारण नीलकण्ठ होकर भी विष से अलिप्त हैं, ऋद्धि-सिद्धियों के स्वामी होकर भी उनसे विलग हैं, उग्र होते हुए भी सौम्य हैं, अकिंचन होते हुए भी सर्वेश्वर हैं, भयंकर विषधरनाग और सौम्य चन्द्रमा दोनों ही उनके आभूषण हैं, मस्तक में प्रलयकालीन अग्नि और सिर पर परम शीतल गङ्गा की धारा उनका अनुपम शृङ्गार है। महादेव के समीप वृषभ और सिंह का तथा मूषक, मयूर एवं सर्प का सहज वैर भुलाकर साथ-साथ क्रीडा करना समस्त विरोधी भावों के विलक्षण समन्वयन की शिक्षा देता है। इससे विश्व को सह-अस्तित्व अपनाने की अद्भुत शिक्षा मिलती है।
महादेव के समीप वृषभ और सिंह का तथा मयूर एवं सर्प का सहज वैर भुलाकर साथ-साथ क्रीडा करना समस्त विरोधी भावों के विलक्षण समन्वयन की शिक्षा देता है।
     शैव, शाक्त, गाणपत्य, सौर, वैष्णव, सगुण, निर्गुण, साकार, निराकार सबका सामञ्जस्य सदाशिव की आराधना में है। इसी प्रकार भोलेनाथ का श्रीविग्रह-शिवलिङ्ग ब्रह्माण्ड एवं निराकार ब्रह्म का पावन प्रतीक होने के कारण सभी के लिये पूजनीय है। जिस प्रकार निराकार ब्रह्म रूप, रंग, आकार आदि से रहित होता है, उसी प्रकार शिवलिङ्ग भी है। जिस प्रकार गणित में शून्य कुछ न होते हुए भी सब कुछ होता है, किसी भी अङ्क के दाहिने होकर जिस प्रकार यह उस अङ्क का दस गुणा मूल्य कर देता है, उसी प्रकार शिवलिङ्ग की पूजा से शिव भी दाहिने(अनुकूल) होकर मनुष्य को अनन्त सुख-समृद्धि प्रदान करते हैं। अत: मानव को उपर्युक्त शिक्षा ग्रहण कर जटाधारी शिव शम्भू के इस महान् महाशिवरात्रि-महोत्सव को बड़े समारोहपूर्वक मनाना चाहिये। महाशिवरात्रि पर चन्द्रमौलि शिवजी को हमारा अनेकों बार प्रणाम....

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